सरकारी कारगुजारियों से परेशान हो स्वतंत्रता के बाद भारत मे ३ ऐसे आंदोलन हुए जिन्होने सत्ता परिवर्तन किये हैं, और तीनो बार ही सत्ता परिवर्तन आंदोलनों के द्वारा जनजागरण कर के संभव हो सके. ७० के दशक अंत मे हुआ सत्ता परिवर्तन जेपी के संपूर्ण क्रांति के आह्वान के आंदोलन द्वारा, १९८९ मे बोफोर्स कांड और भ्रष्टाचारियों के बचाव के प्रयासों से त्रस्त हो वीपी सिंह के आंदोलन द्वारा और १९९९ मे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के आंदोलन ने ऐसा ऐसा संभव किया, किंतु सत्ता परिवर्तन के बाद भी भारतीय जनमानस त्रस्त ही रहा. इन आंदोलनों का तात्कालिक परिणाम सत्ता परिवर्तन के रूप मे दिखा किंतु इन्हीं आंदोलनो को सीढी बना कर अनेको व्यक्तियों ने स्वयं को राजनैतिक पटल पर स्थापित किया.
स्वतंत्रता
के बाद के आंदोलनो का यदि
विश्लेषण किया जाये तो यह
आंदोलन तीन प्रकार के प्रतीत
होते हैं, एक वह
जो राजनैतिक रूप से चलाये गये
किंतु उनका उद्देश्य सत्ता
मे आना होता है, ऐसे
आंदोलन आम तौर पर विपक्ष द्वारा
संचालित हुए, जिसमे
उसने सत्ता पक्ष के गलत निर्णयों
को आम जनता के सामने रखा,
और उसकी उपयोगिता
के अनुसार आम जनमानस ने उसका
समर्थन किया, और
स्थिति के गंभीर होने की अवस्था
मे वह स्वयं आंदोलन का हिस्सा
बन कर प्रचंड विरोध पर उतारू
हो गया. जैसा कि
७० के दशक का जेपी आंदोलन,
८० के दशक का बोफोर्स
कांड के बाद हुआ आंदोलन, ९०
के दशक का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद
आंदोलन और पिछले दो वर्षों
से चला आ रहा जनलोकपाल का
आंदोलन. इसके
अतिरिक्त कुछ आंदोलन ऐसे थे
जिनमे से कुछ मे राजनैतिक
व्यक्तियों का सहभाग और सहयोग
अपने लाभ हानि के गणित के अनुसार
तो था किंतु क्योंकि वह आंदोलन
अराजनैतिक व्यक्तियों द्वारा
चलाये जा रहे थे अतः उसमे समाज
के लिये कार्य करने का प्रयास
अधिक था. उसमे
राजनैतिक इच्छा या सत्ता पाने
की लिप्सा नही थी, ऐसे
आंदोलन अराजनैतिक व्यक्तियों
द्वारा चलाये गये आंदोलनों
मे विनोभा भावे जी का भूदान
आंदोलन, सुंदर
लाल बहुगुणा जी का चिपको आंदोलन,
अन्ना जी का सामाजिक
सुधार हेतु किया गया आंदोलन,
और अन्य सामाजिक
संगठनों द्वारा चलाये गये
अनेकों आंदोलन जिनमे सामाजिक
सरोकारता का पक्ष अधिक था और
राजनैतिक महत्वाकांक्षा का
पक्ष बिल्कुल भी नही था.
इन
दोनो प्रकार के आंदोलन की
प्रकृति आंदोलन चलाने वालों
की मानसिकता और महत्वाकांक्षा
पर निर्भर रही. जो
राजनैतिक पैठ करना चाहते थे,
उन्होने जनांदोलनों
को मिले समर्थन का उपयोग स्वयं
की महत्वाकांक्षा को पूर्ण
करने के लिये उपयोग किया.
इसमे से अनेको राजनैतिक
व्यक्तित्व भी निकले जो गलत
और सही दोनो प्रकार के थे.
और जो अराजनैतिक
आंदोलन थे उनके प्रभाव सामाजिक
थे, उन्हें सामाजिक
स्वीकार्यता तो मिली किंतु
राजनैतिक लाभ कभी नही मिले.
इसके
अतिरिक्त एक तीसरे तरह के
आंदोलन भी धीरे धीरे आरंभ हुए,
जो सामाजिक सरोकारिता
की आड ले कर सत्ताओं और अन्य
संगठनों (चर्च/नक्सलवादियों/अलगाववादियों
इत्यादि) को सहयोग
देने या फिर सत्ता व अन्य
संगठनों (चर्च/नक्सलवादियों/अलगाववादियों
इत्यादि) से सहयोग
लेने की अपेक्षा को ले कर आरंभ
हुए. ऐसे आंदोलनों
के पुरोधाओं की महत्वाकांक्षा
राजनैतिक महत्वाकांक्षा से
बिल्कुल भिन्न थी. यह
सत्ता से दूर रहते हुए भी सत्ता
से सहयोग की इच्छा, दान
का लाभ, स्वयं की
सामाजिक स्वीकार्यता और
राजनैतिक निकटता चारों का
लाभ लेना चाहते थे और सत्ता
के घाघों ने ऐसी महत्वाकांक्षा
वाले व्यक्तियों और संगठनों
का उपयोग अपने विरोधियों के
लिये करना आरंभ किया.
आम
जनमानस राष्ट्रहित और स्वहित
को ध्यान मे रखते हुए आंदोलनों
मे भाग लेता है, यही
कारण था कि स्वतंत्रता के बाद
हुए सभी बडे आंदोलनों मे उसने
सक्रियता से भाग लिया और स्थिति
परिवर्तन हेतु अपना पूर्ण
समर्थन दिया. विनोभा
भावे जी, सुंदर
लाल बहुगुणा जी, अन्ना
जी के आंदोलनों को व्यापक
जनसमर्थन मिला और उन्हें
सामाजिक स्वीकार्यता भी मिली.
जेपी, वीपी
और राम मंदिर आंदोलन को मिले
जनसमर्थन का उपयोग नेताओं ने
स्वयं को राजनीति मे उतारने
या फिर अपनी स्थिति को राष्ट्रीय
पटल पर लाने के लिये किया और
उसमे सफल रहे. इन
सभी आंदोलनों मे एक विशेषता
थी कि जिस भी आंदोलन मे राजनीति
ने प्रवेश किया या जिस भी आंदोलन
को राजनीतिज्ञों ने अपने हाथ
मे लिया वह आंदोलन तात्कालिक
लाभ लेने मे तो सफल रहा किंतु
बाद मे पूरा आंदोलन ही असफल
हुआ. और उन राजनीतिज्ञों
की सामाजिक स्वीकार्यता समाप्त
हो गयी और इस कारण से वह सत्ता
मे कुछ समय तो आये किंतु अंततः
जनता ने उनकी स्वीकार्यता पर
प्रश्न चिह्न खडा कर उन्हें
सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया.
१९५५
मे विनोबा भावे जी द्वारा
भूदान आंदोलन का आरंभ हुआ,
१००० से ज्यादा लोगों
से उन्होंने गांव दान लिये
और उन्हें गरीब लोगों को दे
दिया ताकि वह उसमे अपने घर बना
सकें और परिवार के भरण पोषण
हेतु काम कर सकें. इसमे
कहीं भी राजनीति नही थी, ना
ही विनोबा भावे जी राजनैतिक
व्यक्ति थे जिस कारण से इस
आंदोलन का प्रभाव सामाजिक
रूप से बहुत अधिक हुआ और इसने
विनोबा भावे जी की सामाजिक
स्वीकार्यता तो बढाने के साथ
साथ सामाजिक परिवर्तन भी किया.
क्योंकि यह कोई
राजनैतिक आंदोलन नही था ना
ही इसमे कोई राजनैतिक महत्वाकांक्षा
थी और ना ही इसमे विनोबा भावे
जी ने किसी राजनैतिक महत्वाकांक्षा
पाले किसी भी व्यक्ति को
हस्तक्षेप करने दिया,
हांलांकि इसमे एक
कारण यह भी था कि इस से राजनीतिज्ञों
को अपने लिये कोई खतरा नही दिख
रहा था अतः उन्होंने स्वयं
भी इसका कोई विरोध नही किया.
यह आंदोलन सफल रहा
और अपने लक्ष्य को पूरा करने
मे पूरी तरह खरा उतरा.
१९७०
के लगभग शुरु हुआ चिपको आंदोलन
सुंदर लाल बहुगुणा जी ने शुरु
किया, यह एक ऐसा
आंदोलन था जिसने राजनितिक
व्यक्तियों पर प्रश्न चिह्न
लगाया था क्योंकि जो मांग थी
वह राजनैतिक हस्तक्षेप से ही
पूरी हो सकती थी, यह
आंदोलन जनआंदोलन मे बदला और
इसने सफलता पूर्वक राजनैतिक
दलों पर प्रभाव डाला और वह एक
कमेटी बनाने को मजबूर हुए
जिसने अंत मे आंदोलनकारियों
की मांग का समर्थन दिया १५ साल
के लिये पेड काटने पर प्रतिबंध
लगा,जब तक कि पूरा
हरित क्षेत्र वापस हरा नही
हो गया. यह एक ऐसा
आंदोलन हुआ जो अराजनैतिक था
और जिसने राजनीति के धुरंधरों
को झुकने पर बेबस कर दिया.
यह एक अराजनैतिक
आंदोलन की विजय थी. और
यह इसलिये हो सकी क्योंकि इसको
चलाने वालों मे कोई राजनैतिक
महत्वाकांक्षा नही थी. वह
अपने कार्य के प्रति समर्पित
थे और उसके लिये सत्ता पर दबाव
बनाने की रणनीति पर काम कर रहे
थे.
७०
के दशक का जेपी आंदोलन एक
जनांदोलन था,जब
तक जेपी आंदोलन मे राजनीति
का प्रवेश नही हुआ यह आंदोलन
सफलतापूर्वक चला और इसने अपने
निर्धारित और तात्कालिक लक्ष्य
(सत्ता परिवर्तन)
को सफलतापूर्वक
प्राप्त किया, किंतु
जैसे ही इस आंदोलन को चलाने
वालों मे राजनीति और राजनैतिक
महत्वाकांक्षा का भूत सवार
हुआ, इसका पराभव
भी आरंभ हो गया. एक
आंदोलन जो अराजनैतिक रूप से
अत्यंत सफल रहा था जिसने विभिन्न
दलों को एक साथ आने पर मजबूर
कर दिया था, राजनैतिक
महत्वाकांक्षा के प्रवेश
होते ही वह अपने पतन की ओर जाने
लगा और अंततः उसका पतन हुआ.
जो तात्कालिक सफलता
सत्ता परिवर्तन कर प्राप्त
हुई थी उसे भी इसने असफलता मे
बदल दिया. परिणाम
सामने था वही निरंकुश सत्ता
जिसका आमजन ने जेपी आंदोलन
मे विरोध किया था वह अपने दूसरे
रूप मे फिर से सत्ता मे बैठ
गयी. अपने अपने
राग गाने वालों से एक मधुर
संगीत की कल्पना व्यर्थ थी.
आम जनमानस ने आंदोलन
मे भाग लेने वालों मे घुसी इस
राजनीतिक महत्वाकांक्षा और
उसके प्रभावों से निराश हो
सबक सिखाया और सत्ता फिर उसे
सौंप दी जिसके विरोध के लिये
उसने पहले जेपी आंदोलन को
समर्थन किया था. इस
जनांदोलन ने राजनैतिक रूप से
ईमानदार और गलत दोनो प्रकार
के नेताओं को तो उत्पन्न किया
किंतु वह उस व्यवस्था को उत्पन्न
करने मे असफल रहा जो समाज के
लिये हानिकारक व्यक्तित्व
और चरित्र को राजनीति से दूर
रख सके. परिणाम
यह हुआ कि ८० के दशक मे सत्ता
केंद्रों मे अपनी पैठ बनाने
के उद्देश्य को ले कर आये
राजनीतिज्ञों ने चुनाव जीतने
हेतु अपराधियों का सहारा लेना
शुरु किया. और बाद
मे अपने दल मे ही अपराधियों
को स्थान दे दिया. राजनीति
का अपराधीकरण और फिर अपराधियों
के राजनीतिकरण का युग शुरु
हो गया.
जेपी
आंदोलन और उसके तात्कालिक
प्रभावों की समाप्ति के बाद
परिवार भक्ति को राष्ट्रभक्ति
मानने वालों ने एक अपरिपक्व
व्यक्ति को राष्ट्र का संचालन
सौंप दिया. कुछ
ही वर्षों मे उसका फल भी प्राप्त
हुआ, अपरिपक्व
हाथों मे नेतृत्व जाने का
दुष्परिणाम भी भारत को ही
भोगना पडा, प्रधानमंत्री
जैसे व्यक्तित्व सिख दंगो के
बाद शर्मनाक तरीके से बयान
देते नजर आये, शाहबानो
केस मे संविधान बदल दिया गया,
बोफोर्स का जिन्न
निकला और भारतीय जनता एक बार
फिर आंदोलित हो उठी. आंदोलन
फिर से राजनैतिक लोगों द्वारा
आरंभ किया गया किंतु उद्देश्य
इस बार भी जेपी आंदोलन जैसा
सत्ता परिवर्तन या सत्ता
कब्जाना ही था, जब
तक राजनैतिक लोगो ने अपना छल
प्रपंच और महत्वाकांक्षा इस
आंदोलन मे नही डाली तब तक आंदोलन
सफलतापूर्वक चला. सत्ता
परिवर्तन हुआ और जैसे ही
राजनैतिक प्रपंचो ने इसमे
भाग लेना शुरु किया आंदोलन
के लक्ष्य महत्वाकांक्षा के
कारण बदलने लगे जनसमूह ने फिर
से अपने साथ किये धोखे का सबक
सिखाया, परिणाम
फिर वही निकला, बोफोर्से
घोटाले जैसा अपराध करने के
बाद भी वही लोग सत्ता पर नियंत्रण
कर सके, जिन्होने
बोफोर्स घोटाले के बाद भी
राष्ट्रहित के स्थान पर पार्टी
प्रेम को वरीयता दी थी. वही
लोग जो बोफोर्स घोटाले के बाद
भी राष्ट्रहित के स्थान पर
पार्टी प्रेम को वरीयता दे
कर पार्टी से जुडे रहे, उन्ही
हाथों को एक बार फिर से सत्ता
सुख प्राप्त हुआ.
९०
के दशक मे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद
का आंदोलन शुरु हुआ जिसे
अराजनैतिक संगठनों ने आरंभ
किया, इस आंदोलन
को कुछ राजनैतिक दलों द्वारा
समर्थन दिया गया, जैसे
जैसे आंदोलन ने गति पकडी,
वैसे वैसे राजनैतिक
दलों का ध्रुवीकरण भी आरंभ
हो गया. यह भारतीय
राजनीति का संक्रमण काल का
आरंभ था, जिसने
राष्ट्रीय पटल पर राजनीति को
दो गुटों मे बांट दिया. इस
आंदोलन की राजनैतिक और सामाजिक
दोनो सफलता मिली, हिंदू
एकीकरण के जिस उद्देश्य को
ले कर सामाजिक संगठनों द्वारा
यह आंदोलन आरंभ किया गया था,
उसमे इसे पूर्ण सफलता
प्राप्त हुई, और
राजनैतिक दलों मे भी जिसने
इस का समर्थन किया उसे भी सत्ता
मे भागीदारी मिली. एक
बार फिर से सत्ता परिवर्तन
हुआ, पिछली बार
की गलती से इस बार कुछ सबक लिया
गया, थोडा स्थायित्व
तो मिला किंतु व्यवस्था बदलने
के लिये अपेक्षित कदम नही
उठाये जा सके. और
आत्ममुग्धता से परिपोत सत्ताधारी
आम जनमानस की अपेक्षाओं को
पूरा करने मे असफल रहे,
परिणामतः उन्हें
सत्ता से हाथ धोना पडा. यह
ऐसा आंदोलन था जिसे सामाजिक
संगठनों ने शुरु किया और
राजनैतिक व्यक्तियों उसका
समर्थन या विरोध किया.
सामाजिक संगठन भी
इसे ले कर दो फाड होने लगे.
जहां विश्व हिंदू
परिषद, विभिन्न
हिंदू सामाजिक संगठनों (अखाडे,
आश्रम, समाज
इत्यादि) ने इसका
समर्थन देना आरंभ किया,
वहीं कुछ अन्य सामाजिक
संगठन (जो कि एनजीओ
के रूप मे काम कर रहे थे)
उन्होने इसका विरोध
आरंभ किया. और
जैसा कि अपेक्षित था, धीरे
धीरे यह सामाजिक संगठन भी
राजनैतिक सोच के अनुसार काम
करने लगे. जहां
विश्व हिंदू परिषद व अन्य
हिंदू संगठन खुल कर सामने आ
गये, वहीं तिस्ता
सीतलवाड, अरूंधती
रॉय व अन्य समविचारों वाले
लोगों के संगठन इनके विरोध
मे और अन्य छद्म धर्मनिरपेक्ष
दलों और लोगों के समर्थन मे
आ खडे हुए. सामाजिक
संगठनों का राजनीतिकरण होना
आरंभ हुआ.
किंतु
इसी कालखंड मे जिन लोगो ने ७०
के जेपी आंदोलन का प्रयोग कर
के स्वयं को राजनीति मे स्थापित
किया था, ऐसे लोग
जिनके अंदर राष्ट्रहित के
स्थान पर स्वहित और स्वलाभ
करने की इच्छा ज्यादा थी,
उन्होने अपने राजनैतिक
समर्थन का मूल्य मांगना और
नोचना शुरु किया. इंडियन
बैंक घोटाला, पॉमोलीनऑयल
घोटाला, हर्षद
मेहता घोटाला, सुखराम
टेलीकॉम घोटाला, चारा
घोटाला, हवाला
घोटाला, स्टांप
पेपर घोटाला और इस प्रकार के
अनेकों घोटाले हुए जो अभी तक
हो रहे हैं या खुल रहे हैं.
इस लूट मे मुख्य बात
यह थी कि सत्ता स्वयं लूटपाट
मे शामिल थी. सभी
प्रकार के संकोच, शर्म,
भय, दायित्व,
प्रश्नों को भूल कर
सत्ताधारी खुलकर इस डकैती मे
या तो शामिल हो गये या फिर मौन
रह कर समर्थन देते रहे.
२०१०
के आते आते जब घोटालों का खुलासा
हो चुका था और राष्ट्रमंडल
खेलों मे राष्ट्रसंपत्ति की
लूट होनी शुरु हो गयी तो एक और
जनांदोलन का आधार बनना भी आरंभ
हो गया. अगस्त ५,
२०१० को फेसबुक पर
कॉमनवेल्थ झेल नाम से एक पेज
बना और अगस्त १०, २०१२
को एक इंटरनेट आधारित समाचार
पत्र पर एक
ब्लॉग लिखा गया, इसके
माध्यम से जनजागरण आरंभ हुआ.
राष्ट्रमंडल खेलों
की समाप्ति तक इस पेज पर अनेकों
लोगो ने अपना विरोध दर्ज किया.
खेलों के खत्म होने
के बाद यह तय किया गया कि आंदोलन
को खेलों के नाम पर चलाना व्यर्थ
है और इसी आंदोलन को आईएसी का
नाम दे दिया गया. जिस
प्रकार ७० के दशक मे हुए जेपी
आंदोलन का प्रयोग राजनैतिक
मानसिकता (जो
आंदोलन में जनमानस को सत्ता
के अत्याचार से बचाने के बजाय
स्वयं को स्थापित करने के
उद्देश्य ले कर आंदोलन से जुडे
थे) युक्त व्यक्तियों
ने स्वयं को स्थापित करने मे
किया, उसी प्रकार
आईएसी मे भी दो प्रकार के लोग
सम्मिलित हो गये. एक
वह जो आंदोलन को जनांदोलन की
भांति चलाना चाहते थे, और
दूसरे वह जो जनाक्रोश का लाभ
ले कर स्वयं को स्थापित करना
चाहते थे. (इसका
एक उदाहरण स्वतंत्रता प्राप्ति
के आंदोलन मे भी देखा जा सकता
है उसमे भी दोनो प्रकार के
व्यक्ति सम्मिलित हुए थे,
एक ओर जहां नेहरू
जी (राजनैतिक
उद्देश्य) स्वयं
को सत्ता प्रमुख के रूप मे
देखने के लिये आंदोलन से जुडे,
वहीं गांधी जी
(अराजनैतिक
उद्देश्य) का
उद्देश्य सर्वथा अलग था,
और उन्होने कहा भी
था कि स्वतंत्रता के बाद
कांग्रेस को समाप्त कर देना
चाहिये). आईएसी
का आंदोलन भी विभिन्न अराजनैतिक
व्यक्तियों / संगठनों
(अन्ना जी, किरन
बेदी जी, संतोष
हेगडे जी, राजेंद्र
जी, ऑर्ट ऑफ लिविंग,
भारत स्वाभिमान
आंदोलन व अप्रत्यक्ष रूप से
जुडे अनेक संगठन) के
सम्मिलित प्रयासों के कारण
सफलता की ओर अग्रसर हुआ किंतु
राजनैतिक इच्छा युक्त व्यक्तियों
ने आंदोलन से जुडे सभी ऐसे
व्यक्तियों को जो उनकी
महत्वाकांक्षा के आडे आ सकते
थे, विभिन्न
तर्क/कुतर्क दे
कर अलग किया या ऐसी परिस्थिति
बनाई कि वह स्वयं ही चले गये.
ऐसे लोगों ने अपनी
महत्वाकांक्षा को छुपाने के
लिये हर बार अन्ना जी की आड ले
ली.
ऐसे
व्यक्ति जब आंदोलन से जुडे
थे, उसी दिन से
उनकी मानसिकता की स्थिति
स्पष्ट हो जानी चाहिये थी,
किंतु अराजनैतिक
रूप से आंदोलन चलाने वाले
व्यक्ति सरल थे और उनमे वह
घाघपन नही था जो राजनैतिक
लोगों मे होता है. केजरीवाल
जी व उनके गुट ने आंदोलन पर
धीरे धीरे आधिपत्य जमाना आरंभ
किया. विभिन्न
अराजनैतिक व्यक्तियों और
संगठनों की सामाजिक स्वीकार्यता
के कारण आंदोलन को अपूर्व
जनसमर्थन मिला, जनसमूह
एकत्र देख केजरीवाल जी की निजी
महत्वाकांक्षा भी हिलोरे
मारने लगी. धीरे
धीरे उसकी ओर कदम बढाये जाने
लगे. पहले राजनैतिक
बता कर डा.स्वामी
के लिये ऐसी परिस्थिति बनाई
गयी कि वह चले गये, धर्म
के नाम का सहारा ले कर बाबा
रामदेव को परे हटाया गया,
राजेंद्र जी स्वयं
चले गये, महेश
गिरि जी का भी जब राजनैतिक
दुर्गंध मे दम घुटने लगा तो
उन्होने भी जाने की इच्छा जताई
और चले गये, उनकी
जगह दर्शक हाथी जी को ऑर्ट ऑफ
लिविंग ने अपना प्रतिनिधि
बना कर आईएसी मे भेजा, बुखारी
से समर्थन मांगा गया, काश्मीरी
अलगाववादियों का समर्थन किया
गया. जब अधिकांश
अराजनैतिक व्यक्ति चले गये
तब मात्र अन्ना जी बचे फिर
उनको किनारे करने के लिये एक
अनशन का मंचन किया गया. जिसमे
जनमानस को ऐसा बताया गया कि
अब कोई विकल्प नही बचा है और
बार बार सामने यह कह कर कि अन्ना
जी कहेंगे तो राजनीति मे नही
उतरेंगे, पीठ पीछे
राजनैतिक मंच को तैयार करने
का प्रयास जारी रहा. और
अंततः एक दिन राजनीति की घोषणा
कर दी. योजना ठीक
थी, किंतु अपेक्षा
जो थी वह पूरी नही हो सकी.
अराजनैतिक व्यक्तियों
के पास मात्र सत्य का बल होता
है, छल प्रपंच से
दूर ऐसे व्यक्तियों ने जब
आंदोलन की दिशा को अपनी राजनैतिक
लिप्सा की पूर्ति के लिये
प्रयोग होता देखा तो वह विरोध
मे उतर आये, जो
व्यक्ति सही कार्य के लिये
सत्ता से टकराने से नही चूकता
वह फिर राजनैतिक महत्वाकांक्षा
पाले अपने ही साथ के लोगो से
टकराने से कैसे चूक सकता था.
अंत मे सत्य की ही
विजय हुई. राजनीति
मे उतरते ही जो फेसबुक पेज के
साथ राजनीति की शुरुआत की थी,
उसका पटाक्षेप आज
सुबह हो चुका है, जिस
पेज को धोखे से अपनी राजनैतिक
इच्छा के पेज के साथ मिला लिया
गया था उसे अराजनैतिक व्यक्तियों
ने आज वापस हासिल कर लिया है.
आंदोलन अभी भी अपने
अराजनैतिक रूप मे ही है, और
यही इसकी सफलता का कारण भी
बनेगा. यह भी होगा
कि समय लग सकता है किंतु अच्छा
भोजन धीमी आंच मे ही पकता है.
अतः समय की प्रतीक्षा
और अच्छा समय आने के लिये इस
धीमी आंच को धीरे धीरे ही सही
किंतु प्रचंड करना ही पडेगा.
तभी इस अराजनैतिक
आंदोलन को सफलता मिलेगी.
जहां
तक राजनैतिक इच्छा रखने वाले
व्यक्तियों का प्रश्न है,
वह अब गांधी जी के
ग्राम स्वराज्य की आड ले कर
स्वयं को और अपने दल को अलग
दिखाने का प्रयास करेंगे.
और इसके लिये वह
के.एन.गोविंदाचार्य
जी के ग्राम स्वराज्य आंदोलन
(राष्ट्रीय
स्वाभिमान आंदोलन) और
लोकसत्ता पार्टी के मॉडल को
चुरायेंगे और एक नया एजेंडा
तैयार कर ऐसा प्रदर्शित करेंगे
जैसा कि यह उनका ही विचार है.
और प्रारंभिक स्तर
पर वह दिल्ली प्रदेश की स्थानीय
समस्याओं को ले कर धरना प्रदर्शन
कर अपनी जमीन तैयार करेंगे.
और अपनी राजनैतिक
पहल को दिल्ली के चुनावों से
ही आरंभ करेंगे. उसके
परिणाम भविष्य बतायेगा,
किंतु यह निश्चित
है कि आईएसी के लिये यह व्यक्ति
भी अब राजनैतिक दलों की भांति
ही है, यदि सही
होंगे तो समर्थन और यदि नही
होंगे तो विरोध. और
यही आईएसी की मूल भावना थी/है.
यह तर्क देना कि
आंदोलन से कुछ नही मिलना था
यह एक कुतर्क है, क्योंकि
इसी आंदोलन के कारण एक राज्य
लोकपाल विधेयक को लागू कर चुका
है अतः इस तर्क का कोई आधार
नही है. २ साल के
आंदोलन मे एक राज्य ऐसी व्यवस्था
बना सकता है, क्या
यह सफलता राजनैतिक पार्टी
बना कर अगले ५ वर्षों मे भी
मिल पाती?
जो
यह तर्क देते हैं कि आंदोलन
से कुछ नही होता इसलिये राजनीति
मे उतरना आवश्यक हो गया था,
उनसे मेरा प्रश्न
है कि यदि आंदोलन से कुछ नही
होता तो क्या राजनीति से होता
है ?? देश की स्वतंत्रता
के लिये राजनीति की गयी थी या
आंदोलन किया गया था ? आपातकाल
खत्म करने के लिये राजनीति
की गयी थी या आंदोलन किया गया
था? बोफोर्स घोटाले
मे लिप्त सरकार को हटाने के
लिये राजनीति की गयी थी या
आंदोलन किया गया था.. यह
आंदोलन ही थे जिन्होने अपने
लक्ष्य को प्राप्त किया था..
और यह राजनीति ही
थी जिसने आंदोलन के बाद आंदोलन
को ही नष्ट कर दिया था.
6 comments:
किशोर जी बहुत बढ़िया लिखा है, एक एक शब्द को चुन चुनकर लिखा है, मेरे जैसे लोगों के लिए तो ये एक अध्याय के सामान है जिसे बार बार पढ़ा जाना चाहिए |
एक सुझाव है, अगर भाषा थोड़ी सरल होगी तो पढाने में सुविधा होगी |
शैलेन्द्र सिंह तोमर
पूरे विस्तार और तथ्यों के साथ लिखा गया शानदार लेख… संग्रहणीय।
जब तक किसी आंदोलन में राजनीति और संगठन की बैकिंग ना हो, वह सफ़ल नहीं हो सकता…। जनलोकपाल आंदोलन की असफ़लता का एक कारण यह भी था कि इसने शुरु से मौजूद राजनैतिक व्यवस्था के प्रति हिकारत की निगाह रखी… और संदिग्ध लोग इसमें जुड़ते गए…
सर्वप्रथम IAC पेज वापस पाने के लिये बधाई किशोर जी. आपने विस्तार से सचाई उकेरी है. मेरे विचार से केजरीवाल जी IAC पेज हड़पने में कैसे कामयाब हुये थे इस पर भी आपको प्रकाश डालना चाहिये था. क्या यह काम उन्होंने अपने बल-बूते किया था या इसमें सरकार या किसी राजनैतिक दल ने उनकी सहायता की थी? केजरीवाल जी को यह आत्मविश्वास क्योंकर था कि जिस फ़ेसबुक पेज की बदौलत अन्ना आंदोलन परवान चढ़ा, अपने राजनैतिक कॅरियर के शुरुआत में ही उसी का अपहरण करके वे बेदाग बच जायेंगे? यह रहस्य सबके सामने आना बहुत जरूरी है.
सर्वप्रथम IAC पेज वापस पाने के लिये बधाई किशोर जी. आपने विस्तार से सचाई उकेरी है. मेरे विचार से केजरीवाल जी IAC पेज हड़पने में कैसे कामयाब हुये थे इस पर भी आपको प्रकाश डालना चाहिये था. क्या यह काम उन्होंने अपने बल-बूते किया था या इसमें सरकार या किसी राजनैतिक दल ने उनकी सहायता की थी? केजरीवाल जी को यह आत्मविश्वास क्योंकर था कि जिस फ़ेसबुक पेज की बदौलत अन्ना आंदोलन परवान चढ़ा, अपने राजनैतिक कॅरियर के शुरुआत में ही उसी का अपहरण करके वे बेदाग बच जायेंगे? यह रहस्य सबके सामने आना बहुत जरूरी है.
"कुंए के मीडियाई मेंढक.." वाला लेख हटा दिया क्या आपने?
@amAtya rAkshasa प्रणाम, वह लेख अभी हटाया नही है, किंतु कुछ भाग अभी रह गया था, अतः अभी प्रकाशित नही किया है..
Post a Comment