सुबह रास्ते मे एक विद्यालय के बालक पटाखों के विरोध मे हाथों मे कुछ पट्टिकायें लिये, नारे लगाते हुए चल रहे थे. पटाखों से मुझे कोई लगाव नही है, इन से धुंआ उठता है, ये प्रदूषण फैलाते हैं, इन से आग लगने का भय होता है, इन से चोट लगने का खतरा होता है, यह सभी बातें सत्य हैं, और जब श्री राम अयोध्या आये तो उस समय पटाखों का चलन भी नही था, अतः यह कहना भी उचित नही है कि यह श्री राम के अयोध्या पहुंचने के समय से चला आ रहा है.
जो बात मुझे सबसे अधिक सालती है वह यह कि दिपावली आने पर विभिन्न समाचार चैनलों पर एक युद्ध का शंखनाद कर दिया जाता है कि मिठाई ना खायें, यह मिठाई जहरीली है, यह मिठाई अस्पताल पहुंचा देगी. और दूसरी ओर विदेशी कंपनियों के उत्पादों के विज्ञापन की आवृति और तीव्रता बढ जाती है. इन दोनो को मिला कर यदि विश्लेषण करूं तो लगता है कि यह भारतीय उपभोक्ता को बरगलाने का प्रयास है, जिसमे एक ओर उसे भय दिखाया जाता है कि वो भारतीय बाजारों मे बनने वाली मिठाई को ना खरीदे और दूसरी ओर विदेशी कंपनियां इन्हीं चैनलों पर प्रचार कर उपभोक्ता के मन मे पैदा किये गये भय को अपना सामान बेचने के लिये प्रयोग करते हैं. क्योंकि इन कंपनियों के उत्पाद स्वाद और मूल्य मे भारतीय मिठाईयों के आगे कहीं नही ठहर सकते, अतः उपभोक्ता के मन मे भय पैदा करने की रणनीति बना कर समाचार चैनलों को एक टूल के रूप मे अपनी योजना मे शामिल किया जाता है.
जहां तक परंपरा का विषय है, मैं छोटा था तो मिठाई अधिक नही आती थी, उस समय अधिकांशतः खील, बताशे और खिलौने लाये जाते थे, और दीपावली के दिन उन्हीं का एक दूसरे के परिवारों मे वितरण होता था. इसमे किसी प्रकार की मिलावट की शंका नही थी. और सर्दियों मे सभी लोग उन्हीं खील बताशों को धूप तापते हुए खाते थे. बढते उपभोक्तावाद ने भारतीय सामाजिक व्यवस्था को भी बाजार से नियंत्रित करना आरंभ कर दिया. जिसे अपना उत्पाद बेचना था उसने मीडिया मे पहली तारीख होने पर चॉकलेट लाने की परंपरा को शुरु करने का प्रयास किया. किसी ने भारतीय पर्व के सांस्कृतिक पहलू "एक दूसरे के प्रति मन से दुर्भावना निकालना" के लिये भी अपने उत्पाद की उपस्थिति को अनिवार्य करने का प्रयास किया.इसी प्रकार से विभिन्न कंपनियों ने अनेकों प्रकार से अपने अपने उत्पाद बेचने के लिये प्रपंचपूर्ण विज्ञापन दिखाने आरंभ किये. यह सब इसलिये नही था कि वह भारतीय परंपराओं मे बदलाव लाने को प्रयासरत थे, यह अपने उत्पाद को बेचने के लिये भारतीय परंपरा मे परिवार और प्रेम के बंधन का इस्तेमाल करने का प्रयास था.
ग्रामीण क्षेत्रों मे दूध और घी की कमी ना होने के कारण वहॉ नकली मावे और मिठाई में मिलावट के होने की आशंका बहुत कम होती है, लेकिन शहरों के बाजारीकरण और गांवो के शहरोन्मुख होते जाने के कारण अब यह खतरा बढने लगा है, किंतु जिस प्रकार से मीडिया ने अपने दायित्व को निभाने के स्थान पर कंपनियों के बाजारीकरण और उनके उत्पाद की खरीद को बढाने के लिये सहयोग देना आरंभ किया है वह छोटे मिठाई के व्यवसायियों के लिये मारक है. यह सत्य है कि लोभ मे आकर अनेकों लोग नकली मिठाईयों के व्यापार मे संलग्न हैं, किंतु क्या उसके लिये भारतीय उपभोक्ताओं को जागरूक करने के स्थान पर उनके अंदर भय पैदा करना उचित है? क्या यह नही कहा जा सकता कि विश्वसनीय दुकानों से ही खरीदारी की जाये? क्या सत्ता पर दबाव डालकर मिठाईयों की दुकानों से नमूने उठा कर उन्हें प्रमाणपत्र नही दिया जा सकता, जिसे वह अपनी दुकान पर लगाये और ग्राहक निश्चिंत हो उस दुकान से खरीदारी कर सके. क्या ग्राहकों को अपनी पुरानी परंपरा का निर्वाह करने के लिये प्रेरित नही किया जा सकता कि वह उपहार के स्थान पर प्रेम और आपसी संबधों के ऊपर अधिक ध्यान दे. किंतु इस प्रकार का एक भी कार्यक्रम मीडिया चैनल पर नही दिखाई देगा. कारण एक ही है, मीडिया और कंपनियां दोनो सामाजिक परंपरा के स्थान पर अपनी आमदनी पर ध्यान देती हैं.
विदेशी कंपनियां जानती हैं कि जब पूरे विश्व मे कहीं भी उनका सामान ना बिक रहा हो, भारत मे कोई भी पर्व / उत्सव आने पर लोग खरीदारी को टूट पड़ते हैं, और यहॉ अपने आप ही आर्थिक मंदी दूर होने लगती है. किंतु भारतीय परंपरा मे यह विशेषता भी है कि जो सामान पर्व मनाने के लिये आवश्यक है वह भारत के छोटे व्यापारी ही दे सकते है या बना सकते हैं जैसे कि होली पर गुजिया इत्यादि बनाने का सामान या फिर दीपावली मे खील बताशे खिलौने. अतः अपने उत्पाद बेचने के लिये छोटे व्यापारियों और भारतीय उपभोक्ता के बीच के इस सांस्कृतिक जुडाव को सबसे पहले निशाना बनाया गया. इसके लिये विज्ञापनो मे भारतीय परंपरा को दिखाते हुए उसे अपने उत्पादों से जोडने का प्रयास किया, किंतु जब उसमे भरपूर सफलता नही मिली तो मीडिया का प्रयोग कर भारतीय उपभोक्ता को भयभीत करने का प्रयास किया जाने लगा. मीडिया ने भी अपनी आमदनी के अवसर को देख भारतीय उपभोक्ता को जागरूक करने के स्थान पर विदेशी कंपनियों की योजना के कार्यान्वयन को प्राथमिकता दी और मूर्ख मीडिया अपने दायित्व को भूल अपनी सनातन परंपरा के प्रवाह को आगे बढाने के स्थान पर अपनी आमदनी को ध्यान मे रख इस योजना का सहकार बना.
इस प्रकार की स्थिति यदि जारी रहती है और भारतीय उपभोक्ता ने इस कुचक्र को नही समझा तो इसका परिणाम पहले छोटे व्यापारियों को और फिर उपभोक्ताओं को भी भुगतना पड़ेगा, क्योंकि हमारी संस्कृति मे पूरा समाज एक दूसरे से अप्रत्यक्ष रूप से जुडा हुआ है, हम बाहर से एक दूसरे से भले ही अलग दिखें लेकिन हमारी संस्कृति परोक्ष रूप से हमें एक दूसरे का सहयोगी बनाये रखती है. यह आवश्यक है कि भारतीय उपभोक्ता छोटे व्यापारियों के हितों को ध्यान मे रखते हुए विदेशी कंपनियों के दुष्चक्र से बचे और व्यापारियों के लिये भी यह आवश्यक है कि वह स्वयं के लाभ के लिये कोई भी ऐसा कार्य ना करे जिस से मीडिया और विदेशी कंपनी को भारतीय परंपरा के उस मूल पर हमला करने का मौका मिले जिस ने हमें आज तक बचाया हुआ है. यह समझना होगा कि हमारी संस्कृति हमारी आर्थिक, सामाजिक सुरक्षा करने मे पूरी तरह सक्षम है, आवश्यकता स्वहित के स्थान पर समाजहित के चिंतन की है.
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