Feb 2, 2019

भारतीय संस्कृति, परंपरा और वामपंथी ढोंग

पर्यावरण संरक्षण, पितृसत्ता और महिला अधिकार ऐसे शब्द और कार्यक्रम हैं जिनका वामपंथियों द्वारा आज भारतीय परंपरा, संस्कृति के ऊपर शस्त्र के रूप में उपयोग किया जा रहा है. एक सुशील, आदर्श और कट्टर वामपंथी पर्यावरण संरक्षण के लिये दीवाली, होली, दही हांडी, मकर संक्रांति जैसे उत्सवों को चुनता है और कहता है कि ये पर्यावरण विरोधी हैं. उसे दीवाली पर वायु प्रदूषण, होली पर जल प्रदूषण, मकर संक्रांति पर पक्षी हत्या होती दिखती है.



उसे महसूस होता है जैसे पटाखों से निकला धुआं उसके फेफड़ों में जा रहा है, उसके सीने में टार जमने लगा है. उसकी सांसों में जहर बुझी गैस डाली जा रही है, आंखों में जैसे कोई तेजाब उडेला जा रहा है. इसकी चिंता करते हुए वो अपना एसी ऑन करता है, भुने काजू को प्लेट में सजा कर वह वाइन का ग्लास बनाता है और हौले हौले उसके सिप भरते हुए एक आर्टिकल लिखता है कि किस प्रकार दीवाली उसके इस हरे भरे प्राकृतिक वामपंथी माहौल को जला रही है. उस आर्टिकल को अपने साथी मीडियाई गिरोह को भेज कर वह नर्म मुलायम बिस्तर पर लेट कर एसी की ठंडी हवा में एक चिंता भरी नींद के खर्राटे लेता है.

होली आते ही वह भूल जाता है कि पिछली पूरी गर्मी उसने बाल्टी के स्थान पर स्विमिंग पूल में नहाकर बिताई है. उसे याद होता है कि आईपीएल के क्रिकेट मैचों में मैदानों पर भरपूर पानी छिड़का गया था, लेकिन फिर उसको याद आता है कि किस प्रकार आईपीएल के आयोजकों ने उसे बेहतरीन वाइन, रंगीन शामें उपलब्ध कराई थी. ऐसा याद आते ही उसे लगता है कि होली पर नही लिखा तो वह बेहतरीन वाइन/वोदका, गर्म और भुने मांस से हाथ धो बैठेगा.  इसलिए वह होली पर हो रहे जल क्षरण पर एक आर्टिकल लिखता है और महिलाओं से छेड़छाड़ को जोड़कर कुछ विडियो की स्क्रिप्ट बनाता है. होली बीतते ही पूरी गर्मी वह एसी कार, एसी कमरे, एसी ऑफिस, एसी होटल में बैठकर अपना गुणगान होता सुनता है कि वह एक पर्यावरणविद बन गया है.

पूरे साल भर मुर्गा, बकरा, कबूतर, तीतर, भेड़, बीफ आदि का स्वाद लेते हुए कभी कभी वह मीडिया चैनलों पर खाने के स्वाद के बारे में कार्यक्रम करता है, लेकिन मकर संक्रांति आते ही उसे पतंगों पर लटके पक्षियों के शव नजर आते हैं और उसकी संवेदनशीलता जाग जाती है. पेट मे गये मुर्गे, बकरे, तीतर, भेड़ के पचाने के लिये वह एक कुलीन की भांति हाथ में छड़ी लेकर क्लब जाता है, और वहां से इवनिंग वॉक करके आने के बाद वह फिर एक रेड वाइन का गिलास बनाता है. उस शाम वो चखने में भुना मांस लेता है और मकर संक्रांत उत्सव को दोष देते हुए वह पक्षियों पर दया करने का आह्वान करते हुए एक मार्मिक आर्टिकल लिख मारता है.

पितृसत्ता का विरोध करने के लिये वह स्लट वॉक, गे परेड आदि का आयोजन करता है. उसमे वह शारीरिक रूप से अपने कपड़े उतार कर नंगा होता है, और कहता है कि यह पितृसत्ता का विरोध है. बदले में उसके गिरोह के अन्य सदस्य उसको मान सम्मान देते हैं और उसे लगता है कि नंगा हो कर वह अभिजात्य, कुलीन, श्रेष्ठ, और बुद्धिजीवी हो गया है. उसके बड़े साथी उसको सेमिनार में बुलाते हैं. वहां वह बौद्धिक रूप से पुनः नंगा होता है और जम कर पुरुषों को कोसता है. बदले में वह इच्छा रखता है कि कोई साथी वामपंथिनी पितृसत्ता के विरोध के लिये, अपने परिवार से विद्रोह कर उसके साथ एक मुलायम, गर्म और कोजी रात बिताए. उसकी इच्छाएं पूर्ण होती हैं, तो उसको लगता है परिवार परंपरा नर्क है. स्वर्ग बस यह वामपंथ का बिस्तर, सड़क का नंगा प्रदर्शन, पुरुषों को कोसती हुए महिला की प्राप्ति ही है, बाकि सब हिंदूवादी, मनुवादी और ब्राह्मणवादी हैं.

उसे लगता है कि हिंदू महिलाओं के कपड़े उनके बंधन हैं, उसे इन बंधनों से मुक्त हो जाना चाहिये. लेकिन जब वह एक मुस्लिम महिला को देखता है तो उसके कानों में अजान की सुंदर ध्वनि आने लगती है. बुर्का देखते ही उसको लगता है कि यह भद्र, संभ्रांत, अपनी परंपरा का पालन करने वाली महिला के अंदर कितना प्रेम भरा है कि वह अपने प्रेम की खातिर अपने को ढक कर, छुप कर चलती है और परिवार के प्रति अपने प्रेम को दर्शाने के लिये वह अपने चचेरे भाई, ममेरे भाई की हरकतों को भी बाहर नही बताती है. यह उस महिला का व्यक्तिगत व्यवहार और इच्छा है, और सभी को इसका सम्मान करना चाहिये. पादरी द्वारा सताई गयी महिला और बच्चों की आवाज उसे नही सुनाई देती क्योंकि चर्च के अंदर शांति रहनी आवश्यक है. उसे चर्चों से सिर्फ सुंदर, मनमोहक घंटियों की आवाजें आती हैं, जो उसे गॉड का प्रतिरूप महसूस होती हैं. बुर्के का काला रंग उसे अध्यात्म, पादरी का सफेद चोगा शांति और साधु का भगवा उसे समाज में आग लगा देने वाला महसूस होता है. हिंदू समाज की इस पितृसत्ता को उखाड़ फैंकने के लिये वह स्वयं को मोर जैसा रंगवा कर अगली शाम गे परेड में जाता है, और वहां जम कर किस फेस्टिवल मनाता है. सबको जमकर चूमता चुमवाता है, ऐसा करते समय उसे ऐसा आनंद आता है, जैसा एक गैर वामपंथी महिला उसे कभी नही दे सकती.

महिला अधिकारों के लिये एक वामपंथी बहुत संजीदा चेहरा बना लेता है. वह याद दिलाता है कि भारत के कुछ मंदिरों में महिलाओं को प्रवेश नही दिया जाता, जो उनके अधिकारों का हनन है. वह यह नही बताता कि वहां सिर्फ रजस्वला महिलाओं को ही अनुमति नही दी जाती. मस्जिद में ना जाने की बात करने पर, या किसी भी महिला के पॉस्टर ना बनने की बात करते ही उसके कानों में अजान की मनमोहक आवाज, और चर्च की घंटाध्वनि बजने लगती है, इस कारण वह इन बातों को नही सुन पाता. महिला अधिकारों की बात करने के लिये वह लिफ्ट में, ऑफिस के अपने कमरे में, होटल में, घर में वह उन महिलाओं को बुलाता है जो उसके ऑफिस में ट्रेनी हो, बेटी की दोस्त हो, सहकर्मी हो या कोई ऐसी महिला हो, जिसे क्रांति के लिये बहलाया फुसलाया जा चुका हो. उनके साथ वो वह सब करता है जिसे वो अपना अधिकार समझता है, और फिर अगले महिला अधिकार सम्मेलन में जाकर वह उस रात की बात को छुपा कर, उन रातों की बात करता है जब कैसे वह रात भर सो नही सका, क्योंकि महिलाओं की पीड़ा रात भर उसकी संवेदना को जगाती रही.

एक वामपंथी का लक्ष्य पर्यावरण नही है, लक्ष्य पटाखे, उससे होने वाला धुआं, पानी की कमी, पशु पक्षी, पितृसत्ता, महिला अधिकार भी नही है, लक्ष्य भारतीय समाज और उसको जोड़े रखने वाले कारक हैं. प्रदूषण दिन रात 24 घंटे पृथ्वी पर हो रहा है. पटाखे शबे-रात, अंग्रेजी नये साल पर भी चलते हैं, और पूरे विश्व में चलते हैं. वामपंथ का झंडाबरदार चीन सबसे अधिक प्रदूषण फैलाने वालों में से एक है. सिर्फ वामपंथी चीन ही नही, पूंजीवादी अमेरिका भी ऐसा करने वालों में से एक है. पर्यावरण हिंदू त्यौहार से नही जुड़ा, लेकिन विरोध सिर्फ हिंदू त्यौहार का ही होता है, और इसका कारण दीपावली नही, दीपावली मनाने के पीछे की वह आस्था और श्रद्धा है जो वामपंथ के निशाने पर है. यह श्रद्धा आस्था ही है जिसने पिछले 800 वर्षों से भारतीय समाज को एक करके रखा है, इसलिये हमला अब अप्रत्यक्ष रूप से किया जाता है.

पितृसत्ता की आड़ में समाज मे पशु समान स्वच्छंद रहने का आह्वान करने वाले वामपंथी परिवार को नही समझ सकते, परिवार समझने के लिये प्रेम समझना आवश्यक है. जिसका प्रेम सिर्फ शरीर तक सीमित हो, वह परिवार को नही समझेगा. उनके लिये पिता स्वच्छंदता में रोक लगाने वाला व्यक्ति मात्र है और परिवार परंपरा एक कारावास. वह चाहते हैं कि जीवन पशु समान हो, जहां सभी पशु एक दूसरे से सभी प्रकार के संबंध बनायें, और इसको वह आपस में अपनेपन और प्रेम का नाम देते हैं

महिला अधिकारों में वामपंथी बहुत धूर्त होता है. वह चर्चों, मस्जिदों और अपने वामपंथी समूह में होने वाले महिला उत्पीड़न पर कंबल ओढकर सो जाता है. लिफ्ट में, ऑफिस में, घर में अनेकों वामपंथियों ने महिलाओं का उत्पीड़न किया, क्लब में इनके पिटने की घटनायें भी हुई, लेकिन फिर भी इन घटनाओं के लिये किसी वामपंथी ने कभी आवाज नही उठाई. वामपंथी चाहता है कि महिला स्वयं को स्वतंत्र कहती रहे, और उसके उपभोग के लिये उपलब्ध होती रहे. क्योंकि भारतीय संस्कृति और परंपरा महिलाओं के अंदर इस तरह का भाव उत्पन्न करने में सबसे बड़ी बाधक है, इसलिए वह चाहता है कि इस परंपरा और संस्कृति को नष्ट किया जाये. बाहर से आयी उपासना पद्धतियों, और उनके उपासना स्थलों में होने वाले उत्पीड़न पर भी वह इसीलिये चुप्पी साध लेता है, क्योंकि यह समाज भारतीय परंपराओं को मिटाने के उसके लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक हैं.

वामपंथ कोई मानसिक रोग नही, यह एक विचार है कि कैसे छल्लेदार शब्दों से अपने पापों के ऊपर काला कंबल डाला जाये, और कैसे गोबर के ऊपर कालीन बिछा कर सारे कुकर्म, पाप, दुष्कर्मों को छुपा दिया जाये. गरीबों के नंगे बदन पर अपनी रोटियां सेंकते, उनकी बोटियों से अपनी शराब के लिये चखने का इंतजाम करते, क्रांति के नाम पर अपनी रातों को रंगीन करने के लिये यह एक व्यूह रचना है जो गरीब को अपनी अय्याशी, विलासिता का आधार मानती है, और उसकी नजरों में भला बना रहना चाहती है. ये एक रोग है, जिसका इलाज जड़ से तभी होगा, जब इनके शिकार व्यक्ति हम से जुड़ेंगे वरना हमारे समाज का एक अंग यह वामपंथ सड़ा चुका है. जोंक की तरह देश पर चिपका यह विचार ना सिर्फ संसाधनों का खून पी रहा है, बल्कि हमारी परंपरा और संस्कृति का मजाक उड़ाते हुए उसे विकृत भी करता जा रहा है.

No comments: